'एक सच'
ज़िन्दगी मौत के आगोश में खो रही थी,
सब खड़े असीम दुःख में रो रहे थे,
और वो बेफिक्र पड़ी सो रही थी।
न तो किसी अपनें का इन्जार था उसे
और न ही किसी से भी प्यार था उसे।
इस तरह मौत के आगे बेफिक्र पड़ी थी वो,
अभी तक वो सिर्फ रिश्ते ढो रही थी।
ज़िन्दगी मौत के आगोश में खो रही थी।
जिंदगी न जानें किस घमण्ड चूर थी,
सब कुछ यहीं छूट जाये गा मालूम था उसे,
फिर भी न जानें क्यूँ वो इतनी मगरूर थी।
जानती थी मृत्यु के आगे ढह जाना था उसे,
फिर भी न जानें क्यूँ वो इतनी ज्यादा क्रूर थी।
साँस जब तक चली वो सब समेटती रही,
मौत के बाद वो हर इक चीज उससे बहुत दूर थी।
मौत जिंदगी के सपनें सँजो रही थी,
ज़िन्दगी मौत के आगोश में खो रही थी।
मौत के बाद सायद अब जिंदगी को आराम है,
अब उसकी खोपड़ी पे चढ़े सारे बोझ गिर गए,
जिंदगी के मत्थे बचा अब नहीं कोई काम है।
हरदम हाय हाय की रट लगाती रह गयी ज़िन्दगी,
अब किसी के जुबाँ पे भी नहीं तेरा नाम है।
तुझे लगता था कि तू रुकी तो सब ठहर जायेगा,
आ के देख यहाँ पे सब कुछ चल रहा अविराम है।
जिन को देख के तू इठलाती रही वे सब झूठे हैं,
सच है अगर कुछ तो वो केवल सत्य राम नाम है।आज देखो ज़िन्दगी पूरी हो रही थी,
ज़िन्दगी मौत के आगोश में खो रही थी।
अभिषेक सिंह
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